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कहानी

बस के खेल और चार्ली चैप्लिन

कैलाश बनवासी


मैं अभी-अभी बस में चढ़ा हूँ, और चढ़ने के साथ ही एक झटका-सा लगता है, पल भर में मानो दुनिया बदल जाती है। एकाएक। मैं हतप्रभ रह जाता हूँ!

यों यह रोज हो रहा है, खासकर इन दिनों...। बस में चढ़ते ही, दुनिया सहसा बदल जाती है...।

जबकि, अभी कुछ देर पहले तक, गाँव के सरकारी स्कूल से - जहाँ मैं पढ़ाता हूँ - छुट्टी के बाद साइकिल से लौटते हुए, मन ही मन में कितना खुश था! बहुत ही खुश! जैसे अनायास और अकारण ही। कि जैसे आज का काम पूरा हुआ - इसकी खुशी! और इस समय, गाँव से दुर्ग शहर के अपने घर लौटते हुए मैं अक्सर ही खुश रहता हूँ। मेरे सामने होते हैं गाँव के लीपे-बुहारे साफ-सुथरे घर, घर के सामने बने चौरा में बहुत फुरसत से बैठे और गप्प हाँकते बूढ़े-बूढ़ियाँ, वहीं गली या मैदान में खेलते-कूदते हुए बच्चे... आपस में हँसते, चिढ़ाते और शोर मचाते। गली में बोरिंग से पानी भरती किशारियाँ, स्त्रियाँ...। मेरा मन रम जाता है उनके घरों में, उनके गाय-बैलों में, जो अपने गीले काले नथुनों से सूँ-सूँ करके साँस लेते हैं, जो पुआल खाने में जुटे हैं, जिनके गले में बँधी घंटियाँ गरदन के हिलने की लय में टुनटुनाती हैं, आस-पास की हवा एक अजीब, उष्णीय गंध से भर गई है जो गाय-बैलों, गोबर और पुआाल से मानो एक साथ फूट रही है। देखता हूँ कि अपने बियारा में धान की मिंजाई करते वे कितने आनंदित हैं, घर के छोटे बच्चे बैलगाड़ी में बैठे हुए हैं एक-दूसरे से सटे। और झगड़ते। ...और गुजरते हुए देखता हूँ यहाँ के खेत, मैदान, तालाब, पेड़, तरह-तरह के पंछी, और शाम का आकाश जिसमें धीरे-धीरे लाली भर रही है... देखता हूँ किसानों को जो अपने खेतों से पिछले चार महीने की मेहनत की कमाई - धान बैलगाड़ी में लादे लौट रहे हैं, पैदल, मंथर गति से। उन्हें किसी किस्म की कोई जल्दी नहीं है, बल्कि श्रम से थके उनके साँवले चेहरों पर काम के पूरे हो जाने का गहरा सुकून है। मैं इनमें खो-सा जाता हूँ। और दिसंबर की साँझ के नर्म सिंदूरी आलोक में यह सब देखते हुए मैं जैसे किसी अनाम सुख से भर जाता हूँ! इसे ठीक-ठीक व्यक्त कर पाना कठिन है मेरे लिए। जैसे कि यह सब देखना ही मानो धीरे-धीरे मेरे भीतर कोई सुख सिरजते जाते हैं... अपने-आप।

मुझे इस समय घर लौटने की कतई जल्दी नहीं रहती। यहाँ के माहौल और आबो-हवा का मुझ पर कुछ ऐसा असर होता है कि यहाँ की लाल-भूरी कच्ची सड़क पर मेरी साइकिल भी इनकी बैलगाड़ी के मानिंद चलने लगती है, धीरे-धीरे। ऐसा लगता है, जितनी देर इन सब के संग रहलो, उतना ही अच्छा! हालाँकि रोज ही रहता हूँ।

मुझे दुर्ग जाने वाली बस पकड़ने के लिए गाँव से चार किलोमीटर दूर मुख्य सड़क तक पहुँचना होता है। वहाँ 'लक्ष्मण साइकिल स्टोर' में अपनी साइकिल छोड़कर बस पकड़ता हूँ।

...बस में भीड़ ऐसी है कि पैर धरने की जगह नहीं। लोग सीटों के अलावा सीटों के बीच की संकरी गैलरी में किसी तरह ठंसे हुए हैं। यहाँ गरमी है, और एक-दूसरे से चिपके खड़े लोगों की देहों से उठती हुई पसीने की खारी और चिपचिपी गंध...। साथ ही भेड़-बकरियों की तरह से भरा गए देहातियों और उनके ढेर सारे बोरों, पोटलियों की गंध है। ये इधर रोज ही अपने माल-असबाब के साथ, जाने कहाँ-कहाँ से निकलकर आ जाते हैं, जैसे मधुमक्खी के छत्ते पर किसी ने ढेला फेंक दिया हो और मधुमक्खियाँ जोरों से भनभनाती हुईं यहाँ-वहाँ तितर-बितर हो रही हों! वे लोग सचमुच अपने माल-असबाब की ही तरह इस बस में किसी तरह ठंसे पड़े हैं। ये स्थिति न तो बस कंडक्टर के लिए कोई नई चीज है न ही रोज के यात्रियों के लिए। हाँ, लेकिन सभ्य-जनों को जरूर लगता होगा - 'अरे, कहाँ से आ गए ये गँवार? जरा देखो इनको! पूरा घर-गिरस्थी उठाकर चले जा रहे हैं! तरह-तरह के बोरे, टीन-टपरे, संदूक-बक्से! तिस पर अपने इतने सारे बच्चे!'

ये सारे रेलवे स्टेशन जा रहे हैं। वहाँ से फिर अपने-अपने गंतव्य की ओर जाने के लिए बँट जाएँगे - टाटा, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, इलाहाबाद, हैदराबाद, श्रीनगर, पठानकोट...।

भीड़ में मैं भी खड़ा हूँ। इन्हीं में से एक यह परिवार है जो ऐन मेरे आगे खड़ा है - सामने से दो सीट पीछे। ये चार लोग हैं - पति, पत्नी और दो बच्चे। पति काले रंग का दुबला-पतला और ठिगना आदमी है, अलबत्ता मेहनत-मजदूरी के कारण देह कसी हुई है। साथ में पत्नी, छोटे कद की साँवली स्त्री। इनके साथ दो छोटे-छोटे बच्चे हैं... एक तीन-साढ़े तीन साल का लड़का... और उससे बमुश्किल एकाध साल बड़ी लड़की। दोनों ही बच्चे निहायत दुबले-पतले। चारों बिलकुल निरीह और दयनीय नजर आ रहे हैं, खासकर इस समय। और बच्चे तो इस भीड़ में ऐसे गुम हैं कि किसी को दिखाई भी नहीं दे रहे। दोनों को दरअसल साथ की सीट से एकदम सटा के ऐसे खड़ा कर दिया गया है कि किसी को दिखाई नहीं पड़ रहे।

'एला अपन गोदी म बइठा ले मेडम!''

अभी-अभी ही औरत ने बालक के बगल की सीट पर बैठी दो लड़कियों से हँसकर, अनुरोध में कहा है।

"नहीं। हमारे पास जगह नहीं है।" लड़कियों ने साफ मना कर दिया है।

दोनों ही अपना चेहरा स्कार्फ से बाँधे हुए हैं, देखने के लिए आँख भर जगह मात्र छोड़कर... ऐसे स्कार्फ बाँधना हमारे छोटे से बड़े होते शहर का जाने कैसे, इधर की किशेरियों-युवतियों का अपना एक फैशन-सा बन गया है। जान पड़ता है जैसे इन्हें अपनी पहचान किसी कारण से अपने परिचितों से ही छुपानी है! इनमें से एक ने जो कुछ लंबी, गोरी और भरे देह की है, चटख पीले रंग का सूट पहना है, जबकि दूसरी थोड़ी छोटी, दुबली और साँवली है। दोनों में गोरी ही ज्यादा वाचाल नजर आती है साँवली की तुलना में। व्यक्ति के स्वभाव बनने में भी 'कलर फैक्टर' ही मुख्य काम करता है जैसे। मुझे ये दोनों लड़कियाँ हाल-फिलहाल नौकरी में आई जान पड़ती हैं। मैडम हैं। शायद दोनों एक ही स्कूल में पढ़ाती हैं। साथ ही लौट रही हैं। संभवतः इस बस की नियमित सवारी, जिनके लिए कंडक्टर जगह रोक कर रखता होगा...। ये दोनों ही बाइस-चौबीस की उम्र की हैं।

लड़कियाँ बस के हालात से बेखबर इस समय अपनी बातचीत में डूबी हैं।

गोरी बता रही है, "मालूम है, बी.एस.सी. फाइनल में प्रेक्टिकल के दिन मेरे साथ क्या हुआ था?''

"तू बताएगी तभी तो जानूँगी।"

"अरे, मैं भी ऐसी भुलक्कड़ हूँ न... अपने बायो प्रेक्टिकल एक्जाम की डेट ही भूल गई थी! और मैं मजे से भाभी के संग सबेरे मार्केट चली गई थी। वहाँ से आई तो मेरे को स्ट्राइक हुआ... कुछ भूल रही हूँ करके...। तभी फट से याद आया, अरेऽऽ... आज तो मेरा प्रेक्टिकल एक्जाम है! दो बजे से! मैंने घड़ी देखी, पौने दो गए थे। मैं तुरंत भागी! वैसेच! मार्केट गई थी तो हाई हिल की सैंडिल पहने थी, उसी को पहने-पहने कालेज गई! तू सोच... त्रिवेदी सर ने क्या सोचा होगा मेरी हाई हिल सैंडिल देखके...?''

साँवली ने हँसकर उसे छेड़ा, "अरे यार, जब सामने इतना सुंदर चेहरा हो तो त्रिवेदी हो कि चतुर्वेदी, भला कोई नीचे क्यों देखेगा? हाँ?''

लगा, गोरी अपनी सुंदरता के लिए उसके इस कमेंट पर मन ही मन बहुत खुश हो थोड़ा शर्मा गई है, पर प्रकट में बोली, "देख-देख... मैं कुछ नहीं बोल रही हूँ, न...? तू ही बोल रही है... अपने मन से।"

कुछ देर के बाद गोरी ने तंग भाव से कहा, "छिः रे! इत्ती गंदी गाड़ी है न ये। एक तो इत्ती भीड़! ऊपर से ड्राइवर भी इतने मरियल चाल से चला रहा है।"

"तो तू अपनी स्कूटी क्यों नहीं ले आती रानी साहिबा?'' साँवली पूछती है।

"अरे, वो बिगड़ी पड़ी है, इसीलिए तो। पर छत्तीस किलोमीटर रोज आना-जाना भी तो मुश्किल है। पर वैसे भी मुझे अपनी स्कूटी निकालनी है।"

"अच्छा! तो चल मेरे को बेच दे न। कितने तक बेचेगी?''

"यही दस-पंद्रह तक बेचूँगी। हार्डली चारी साल तो हुए हैं खरीदे।"

"बाप रे, दस-पंद्रह!'' साँवली ने मुँह फाड़ लिया।

"तो और क्या? तू क्या हजार-पाँच सौ में खरीदेगी?''

"नई रे, इतना कम थोड़े ही। पर पंद्रह तो महँगा है।"

"महँगा है तो महँगा है। जा मेरे को नई बेचना है। पैंतालिस-पचास का रेट चल रहा है, मैडम! अभी वो चार ही साल चली है... वो भी सिंगल हैंडिड! मेरे सिवा और कोई छूता भी नहीं मेरी गाड़ी को। पापा ने मेरे बर्डे पर गिफ्ट किया था। और पता है, मेरा ड्रीम क्या है?''

"मेरे को कैसे पता होगा?''

"मेरा ड्रीम तो कार लेने का है। येस! आय विल बाय अ ब्रैंड न्यू कार!''

"वाऊ!''

"लेकिन अभी नहीं। कुछ साल बाद।"

"तब तक सेलेरी भी बढ़ जाएगी। है ना? देख, कार तो मुझे भी खरीदनी है। ऐसा कर पहले तू खरीद ले। पुरानी हो जाएगी तो मेरे को बेच देना।"

"अरे, ये तेरा सेकेंड हैंड वाला क्या चक्कर है? पहले मेरी स्कूटी... फिर मेरी कार... फिर कहीं ये तो नहीं बोलेगी कि तेरा हसबैंड? क्यूँ, तेरे को लाइफ में नया कुछ भी नहीं चाहिए? हर चीज सेकेंड हैंड? कहीं हसबैंड भी तो नहीं चाहिए सेकेंड हैंड...।"

"चुप यार, तू भी न...?''

"अरे, मैं अपने से कहाँ कुछ बोल रही हूँ, तू जो बोल रही है, वोई तो मैं बोल रही हूँ। वैसे आइडिया बुरा नहीं है...। दे आर एक्सपीरियंस होल्डर... नइ...?'' वह हँसने लगी।

"अरे चुप। कुछ भी बकवास करती रहती है तू तो।"

"नइ यार, मैं तो मजाक कर ही थी।"

"बाइ द वे कौन-सी कार खरीदेगी? आइ टेन? या डिजायर...? या फिर मर्सिडीज...?''

"अरे नहीं बाबा। मैं तो 'आरटिगा' खरीदूँगी।"

"वाऊ! 'मेरे डैड की मारुति' वाली!'' वह खुशी और ईर्ष्या से चहकी।

बस रास्ते के हर गाँव में रुकती है। इस बीच बस की सवारियाँ और बढ़ चली थी। बस कंडक्टर आने वाली सवारियों को इधर ही भेजता जाता था और लोगों से कहता जाता था - थोड़ा पीछे सरको भाई! और पीछे! अभी तो और सवारी आ जाएँगे!

सामने खड़ा एक देहाती डोकरा कंडक्टर पर बड़बड़ाया - "पूरा त भरा गे हे! अउ कतेक ल चढ़ाबे?''

इधर दोनों लड़कियाँ बातचीत बंद कर अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हो गई हैं। साँवली लड़की ने बड़ी स्क्रीन वाली अपनी मोबाइल में फेसबुक खोल लिया है, जिसमें आए कमेंट और पोस्ट वो तेजी से देख रही हैं। उसकी नेलपॉलिश से रंगी उँगलियाँ बहुत तेजी से अपने मोबाइल की स्क्रीन को स्क्रॉल कर रही है जिसमें कोई भी चित्र कुछ सेकेंड से अधिक नहीं ठहर पाता। इस खोजा-खोजी में कुछ दिलचस्प दिख जाता तो पल भर ठिठक जाती, फिर आगे बढ़ जाती। वहीं इसी तरफ बैठी गोरी लड़की मोबाइल पर कोई गेम खेलने में व्यस्त हो गई है। जैसे अपने ही खालीपन से उकताकर उसने अपना टाइमपास करने यह गेम ऑन कर लिया। इसमें हेविवेट बॉक्सर माइक टाइसन नुमा एक हृष्ट-पुष्ट, ऊँचा-पूरा निग्रो अपने हाथ में मशीन गन लिए सड़कों पर खतरनाक तेजी से भाग रहा है और उसके रास्ते में जो भी आए उन्हें बिलकुल बेधड़क, बहुत बेरहमी से भूनता जा रहा है। वह ऊँची-नीची सड़कों पर तमाम ट्रैफिक नियमों की ऐसी-तैसी करता बेहद हिंसक और अराजक तरीके से कूदता-फाँदता भाग रहा है। वह आकामक 'हीरो' लड़की के हाथों का खिलौना था जिसे उसकी उँगलियाँ मन माफिक दौड़ा रही थीं... बगैर कुछ सोचे... मजे लेती हुई। स्क्रीन का वह अराजक हीरो इतने खतरनाक तेजी से कूदता-फाँदता था और गोलियाँ चलाता था कि देखके सिहरन होती थी, एक पल को मन में भय होता था कि यदि कहीं यह जंगली 'हीरो' गेम से बाहर निकल आया तो क्या होगा?

मैडम उसके भागम-भाग और हत्याओं में एकदम निमग्न थी। उसे रत्ती भर भी याद नहीं था कि ठीक उसके दाहिने बगल में ही तीन बरस का एक नन्हा मासूम बहुत देर दबा-दबा छुपा-सा खड़ा है, सहमा हुआ-सा। वह लड़का चुपचाप, एक डरी हुई उत्सुकता से उसके मोबाइल पर चल रहे दृश्यों को देख रहा था। पता नहीं क्या सोच रहा है? या इस समय शायद वह कुछ भी सोच सकने से परे है...।

जबकि बच्चे के पिता ने उसे व्यस्त देखा तो वह मेरी ओर देख कर मुस्कराया, इस भाव से कि चलो, बच्चे का मन कहीं तो लग गया है, कि वह अपने खड़े रहने की तकलीफ भूलकर इसमें खोया हुआ है...।

मैंने पाया, बस में इस समय ऐसे बहुत-से लोग थे जो अपनी सीट पर बैठे थे और इसी तरह अपने मोबाइलों पर व्यस्त थे - कोई फेसबुक पर या कोई नेट पर, या कोई गाने सुनने में। अपना समय काटते। गाँवों से आए लोग खड़े-खड़े उन्हें चुपचाप बस ताक ही रहे थे, किसी अजूबे की तरह। कुछ पूछने में भी हिचकिचाते। हालाँकि उन्हें काफी दूर जाना था। उनमें से किसी ने कंडक्टर से पूछा था, आगे सीट मिलही के नहीं? कंडक्टर ने तुरंत, बगैर कुछ सोचे जवाब दिया था - मिल जाएगा।

ये लोग सचमुच गँवार है क्या? बस में जहाँ-तहाँ उनके मोटरा, पोटली, टुकना, गंजी या बोरे रखे देखकर एकबारगी मेरे मन में आता है। यहाँ तक कि ड्राइवर के बोनट पर भी इनका सामान रखा था, जो ये अपने साथ ले के जाएँगे। हर जगह ऐसी ही विकट परेशानी उठाते हुए, हर जगह साहब-बाबू की नजर में गँवार, उजड्ड कहलाते, उनकी डाँट-गालियाँ सहते हुए...। यहाँ तक कि जहाँ काम करने ये जा रहे हैं, वहाँ भी बाबू, ठेकेदार, या मेट अथवा सुपरवाइजर की मार-गाली ही खाएँगे। अपने गाँव-घर से बेघर हो रहे इन लोगों की कुल आकांक्षा बस इतनी ही रहती है कि अपने इन खाली दिनों में काम करके वे कुछ पैसे जोड़ लें, ताकि वह पैसा कल उनके काम आ सके... बेटा-बेटी के ब्याह में... घर की छप्पर-छानी सुधरवाने में, एक-दो कमरा बनवाने में...। और यह सब ये परदेस में अपना पेट काट के, नून-बासी चटनी खाकर जोड़ेंगे...। अपने मनोरंजन के लिए इनके पास अपना सस्ता मोबाइल मात्र ही है, जिस पर फुल वाल्यूम में छतीसगढ़ी गाने सुनते हुए ये जैसे किसी तरह अपना 'होना' बचाए रखते हैं। उसे सुनते हुए ही ये अपने गाँव, घर या संगी-साथियों को याद कर लेंगे... जितना उनको ऐसे किसी मौके पर याद आ सकता है, उतना ही... धीरे-धीरे फिर वह भी धुँधला होता जाएगा...।

मुझे पता है, स्टेशन के पास वाले चौक में बस के पहुँचते-पहुँचते साँझ का अँधेरा कुछ गहरा चुका होगा, और बस के रुकते ही ये वहाँ उतर जाएँगे, इनके द्वारा धड़ाधड़-धड़ाधड़ अपना सामान उतारने के बावजूद कंडक्टर इनको गरियाता हुआ और जल्दी करने को बरजता रहेगा, बस के शेष यात्री फिर अपने घर पहुँचने में होने वाली देरी के लिए इन देहातियों को कोसने लगेंगे...। फिर कुछ ही देर में ये सारा सामान अपने सिर, कंधों पर लादकर ये चल देंगे, बगल में बच्चा भी इनकी गोद में लटकता या झूलता रहेगा... कुछ पल के बाद इनकी आकृतियाँ शहर की भीड़ और साँझ के अँधेरे में धीरे-धीरे खो जाएँगे...।

यह दृश्य इन दिनों लगभग रोज ही देख रहा हूँ। मैं इन लोगों के बारे में सोच रहा हूँ, ये परदेस जा रहे हैं, कमाने-खाने। माई-पिल्ला! अपनी इसी गिरस्थी को लेकर। पीछे इनका गाँव छूट रहा है, जहाँ इनका अब तक का समय बीता है, बचपन, यारी-दोस्ती, खेत-खार, घर-दुआर, गाय-बैल... सब छूट रहा है। इन सबके छूटने के दुख को संग लिए-लिए ये परदेस जा रहे हैं। गाँव से निकलते समय अपने परिजनों से मिलकर रोए होंगे, और रोते-रोते कहे होंगे - 'अब जावत हन...। दया-मया ल धरे रहिबे संगवारी...।'

यदि कोई देखना चाहे उनके दुख, तो बस जरा ध्यान से देखते ही एकदम दिखाई पड़ जाएँगे - पानी पर पड़ गए तेल की तरह सतह पर तैरते हुए।

इस समय कंडक्टर पीछे से टिकट काटता आ रहा है - 'हाँ, आपका भाईजी? आपका मैडम? टिकट हो गया? कहाँ का?' ऐसी भीड़ में भी वह दुबला-पतला कंडक्टर बड़े कौशल से लोगों के बीच जगह बनाता टिकट काट रहा था। उसे इसकी आदत है। बीच मंझधार में नाव खे लेने जैसी दक्षता के साथ।

"इतना काहे को भर रहे हो?'' जींस-टी-शर्ट और गॉगल पहने एक लड़के ने - जो खड़ा था - काफी गुस्से से उस पर बमका - "इत्ती भीड़ में तो साला खड़ा होना भी मुश्किल है!

कंडक्टर ने उसे अद्भुत अप्रत्याशित शांति से जवाब दिया - "देखो भाई, जब मैं कहूँगा तो आपको बुरा लगेगा। मैं आपको बुलाने तो नहीं गया था? अगर आपको इस बस में नहीं जाना है तो आप टिकट का पैसा वापस लेकर उतर जाओ।"

लड़का निरुत्तर हो गया। कंडक्टर जब हम तक पहुँचा तो मैंने उसे चेताया, "अरे-अरे, देखके! यहाँ एक छोटा बच्चा है!''

बच्चा? कंडक्टर जैसे होश में आया। उसे तो नीचे देखने की सुध ही नहीं थी। उसे तो जैसे केवल खड़े लोगों की मिंडियों की गिनती करने की आदत है। वह घबराया, इसलिए कि ऐसे कोंटे में पड़े-पड़े बच्चे को कुछ हो-हवा गया तो? उसने देहाती पर गुस्सा किया - "अरे यार, ये यहाँ-कहाँ पड़ा है? इसको इधर क्यों डाल दिया है?''

उसके कहने से देहाती को भी तैश आ गया, "अरे, तो यहाँ जगा कहाँ है? जगा रही तभे त बइठाही।"

कंडक्टर ने अपने दोनों हाथों से पकड़कर उसे कोने से ऐसे बाहर निकाला मानो वह बच्चा नहीं, दड़बे की एक मुर्गी हो! उसने बच्चे को अपने कंधे के भी ऊपर हवा में उठा लिया, उसके लिए उचित जगह तलाश करते। आश्चर्य कि बच्चा इस बखत भी बिल्कुल ऐसे चुप था गोया ऐसे चुप रहने की उसकी कोई पक्की ट्रेनिंग हुई हो! या कि वह भी यात्रा में बार-बार ऐसे उठा-पटकवाले तमाशे का आदी हो गया हो! बच्चा तो वैसे ही निरीह और कमजोर था, और दयनीय, जैसे जादू या तमाशा दिखाने वालों के बच्चे प्रायः हुआ करते हैं। अंतर इतना था कि इसके कपड़े फटे-पुराने नहीं थे, और देह भी मैली नहीं थी। इसके माता-पिता ने इसे अपेक्षाकृत सँवार के रखा था।

कंडक्टर बड़बड़ाया, "अरे यार, तुम लोग भी न बच्चे को नीचे में कचरे के माफिक डाल दिए हो? कहीं कुछ हो हवा गया तो साली हमारी ही मुसीबत!

"तो कोनो जगा बइठा दे एला! हम मन त कहत-कहत थक गेन!'' कंडक्टर की भलमनसाहत का लाभ उठाने की गरज से आदमी बोला।

अब वह बच्चा कंडक्टर के हाथों में था तो यह जैसे उसकी जिम्मेदारी हो गई थी। उसने बच्चे को बगल में बैठी मैडम के गोद में जबरदस्ती डाल दिया, यह कहते हुए कि थोड़ी देर के लिए इसे बिठा लो, मैडम।

"अरे-अरे!'' मोबाइल में गेम खेलती मैडम गुस्से से चीखी, "हटाओ इसको यहाँ से! ये मेरा नहीं है!''

यह कहने पर आस-पास के लोग हँस पड़े तो मैडम को अहसास हुआ उसने कुछ गलत कह दिया है।

कंडक्टर भला हँसी-मजाक के इस मौके को कब छोड़ने वाला था। बोला, "मैं कब कह रहा हूँ मैडम बच्चा आपका है। मैं तो ये कह रहा हूँ कि इसको अपनी गोद में थोड़ी देर के लिए बिठा लो।"

"नइ! मैं किसी को अपने गोद में नहीं बिठाती! किसी दूसरे को दो। हटाओ यहाँ से!'' मैडम ने बहुत सख्ती से कहा।

कंडक्टर ने उसके तेवर देखे तो समझ गया कहना बेकार है। फिर उसने सोचा कि ये तो रोज की पैसेंजर है, नाराज करना ठीक नहीं होगा। तब उसने दूसरी सीट पर बैठे एक मोटी मूँछ वाले मोटे आदमी को देना चाहा, "भाई साब, इस बच्चे को गोद में बिठालो। तो वह भी मानो अपनी नींद से जागा, "अरे नहीं-नहीं! क्या करते हो? किसी दूसरे को दो!''

मैं देख रहा था, वह बच्चे को लिए-लिए आस-पास घूम रहा है, उसके लिए कोई जगह तलाशते।

मुझे सहसा आभास हुआ, कि मैं चार्ली चैप्लिन की कोई फिल्म देख रहा हूँ... बीसवीं सदी के शुरुआती दौर की कोई मूक और श्वेत-श्याम फिल्म, जिसमें चार्ली चैप्लिन उस गँवई बच्चे को गोद में लिए-लिए बस में घूम रहा है... एक सीट से दूसरी सीट, उसको कहीं बिठाने मात्र के लिए बार-बार अपनी टोपी उतारकर उनसे अनुरोध करता... अपनी आँखों से, होठों से भद्र-जनों से याचना करता, चिरौरी करता। और बस में उस दौर के कुलीन लोग सवार हैं - उद्योगपति, अफसर, व्यवसायी या जमींदार! कोट पहने मोटी-मोटी मूँछ वाले रौबदार लोग! और बहुत कीमती विक्टोरियन रेशमी घरारेदार गाउन पहनी मोटी स्त्रियाँ! सब उसे बुरी तरह दुत्कार-फटकार रहे हैं, लेकिन कोई भी उसकी मदद नहीं कर रहा। आखिर में किसी ने भी उसको जगह नहीं दी है...। अब चैप्लिन के मासूम-से मसखरे चेहरे पर अपने हार जाने की एक निरीह हँसी है, लेकिन इस हँसी में चिथड़ा-चिथड़ा हो चुकी उसकी आत्मा की अकथ पीड़ा है, छटपटाहट है, और बहुत गहरी उदासी है... समुद्र जैसी गहरी उदासी...।

और मैं पाता हूँ, हारकर कंडक्टर ने बच्चे को वापस उसी कोने में छोड़ दिया है जहाँ से उसने उठाया था। और अपने बाकी काम निपटाने आगे बढ़ गया है...।

बगल की सीट वाली लड़की अपने गेम में फिर उसी तरह मगन हो गई है। जैसे आस-पास और कुछ है ही नहीं!

बच्चा अपनी भोली आँखों से फिर उसके मोबाइल स्क्रीन पर हो रहे कूद-फाँद को देख रहा है।

अबकी बच्चे के मजूर पिता ने मुस्कुराकर अपने बेटे का दिल बहलाने के लिए कहा है - "अरे, देख तो बेटा... मेडम हा का खेलत हे!''

इस पर बच्चा जरा-सा खुश होकर मुस्कुरा दिया है।


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